मध्यप्रदेश ने पहली बार जीता रणजी ट्रॉफी का खिताब...।
कौन कहता है कि-
कौन कहता है कि-
उसका बर्थडे 3 जून को आता है मुझे ये पता है। आज भी पता है कल भी पता था और परसों भी पता रहेगा। यह कोई भूलने वाली चीज नहीं है ना। मुझे भी पता है कि उसका बर्थडे 3 जून को आता है और उसे भी पता है कि मेरा बर्थडे 25 जनवरी को। लेकिन पता नहीं क्यों बर्थडे विश करने के मामले में वह हमेशा ऑन टाइम रहती है और मैं हमेशा लेट हो जाता हूँ। फिर शिकायती फरमान आने पर वही गाना-
यूँ तो सोचने का आजकल बहुत कम समय मिलता है फिर भी मन चंचल और चिंतनशील है इसलिए कुछ न कुछ सोच ही लेता है। दरअसल! आज एक ऐसा वाकया हुआ कि मन सोच में पड़ गया। ज़हन में खयाल आने लगे कि आदमी एक छोर से दूसरे छोर तक का सफ़र तय तो करता है लेकिन है सब अनिश्चित। और कभी-कभी तो ऐसा होता है कि एक सीमित समय में ही आप बहुत कुछ कर डालते हैं, भले ही आधा- अधूरा ही क्यों न करें।
कुछ खास नहीं था न मुझमें? वही भदेसपन, वही आवारागर्दी, वही खेलने का पागलपन, और साइंस की किताबों में डूबा भारी सा चेहरा। सबेरे से शाम तक क्रिकेट ग्राउंड में बीतते थे। शाम को ग्राउंड से आते वक्त मम्मी गुस्साए हुए अंदाज में कह भी देती थीं कि-आज तो खाना भी क्रिकेट ग्राउंड में ही खाते, घर काहे लौट आए? उस वक्त कोई जवाब ना होता था। बस इतना कि हाथ पैर धोकर खाना खाना है और फिर फिजिक्स की किताब उठा लेनी है। बहुत बोरिंग सी होती हैं साइंस की किताबें। और बोरियत तब और बढ़ जाती है जब आपका माध्यम हिंदी हो। लेकिन इसकी एक दिलचस्प बात यह है कि अगर आपको साइंस समझ आने लग गई तो समझो सारी दुनिया इसी में है।
वाकया किस साल का है मुझे ठीक से याद नहीं! कुछ-कुछ याद कर पा रहा हूं, शायद उस समय मैं छठवीं क्लास में था। अप्रैल या मई का महीना था, आईपीएल के मुकाबले खेले जा रहे थे। चूंकि उस समय खेल समाचारों को जानने का या यूँ कहें कि- गाँव में समाचार जानने का एकमात्र साधन रेडियो हुआ करता था, इसलिए समाचार तो नहीं लेकिन खेल समाचार जानने के लिए मैं भी रेडियो पर ही निर्भर रहता था।
Zoology का पहला लेक्चर। शहर, कुर्सी, टेबल, चाक, डस्टर, ब्लैकबोर्ड, प्रोफेसर और सहपाठी, यहाॅ तक की पढ़ाई का माध्यम तो हिन्दी ही था, लेकिन अत्यन्त संकीर्ण ढर्रे पर। एकदम सबकुछ नया था अंकुश के लिए। गाँव के हिन्दी माध्यम के विद्यार्थियों की जो दशा देश में है उस कुंठित दशा से अछूता रहना अंकुश के लिए भी संभव न था। पूरे लेक्चर की समयावधि तक अर्थात 40 मिनट वही अंकुश जो अपने गाँव का टाॅपर था, जिसके नाम की पूरे गाँव के गली-मुहल्ले में चर्चा थी, जो तारीफों के अमृत रूपी सागर में निमग्न था, वही अंकुश आज मानो गहन तिमिर में संज्ञाविहीन हो गया हो। जीवन नि:सार है, संसार निरर्थक है, मै निरूपाय अकेला क्या करूँगा? भांति-भांति की भविष्यगत चिन्ताएँ उसके माथे पर सिकन पैदा कर रहीं थीं, और वह क्लास के पहले बेंच पर बैठकर जागृत अवस्था में स्वप्न सागर मे लीन था और संभवत: दु:खी भी। तभी माधुर्य से लबरेज लहजे में किसी ने कहा-"एक्सक्यूज मी! आप आपका नंबर दे दो।"
तुम M.Sc इसी कॉलेज से करोगे ना? इंटर्नशिप के आखिरी दिन उसने मुझसे पूछा था।