पहला दिन,पहला प्यार...

Zoology का पहला लेक्चर। शहर, कुर्सी, टेबल, चाक, डस्टर, ब्लैकबोर्ड, प्रोफेसर और सहपाठी, यहाॅ तक की पढ़ाई का माध्यम तो हिन्दी ही था, लेकिन अत्यन्त संकीर्ण ढर्रे पर। एकदम सबकुछ नया था अंकुश के लिए। गाँव के हिन्दी माध्यम के विद्यार्थियों की जो दशा देश में है उस कुंठित दशा से अछूता रहना अंकुश के लिए भी संभव न था। पूरे लेक्चर की समयावधि तक अर्थात 40 मिनट वही अंकुश जो अपने गाँव का टाॅपर था, जिसके नाम की पूरे गाँव के गली-मुहल्ले में चर्चा थी, जो तारीफों के अमृत रूपी सागर में निमग्न था, वही अंकुश आज मानो गहन तिमिर में संज्ञाविहीन हो गया हो। जीवन नि:सार है, संसार निरर्थक है, मै निरूपाय अकेला क्या करूँगा? भांति-भांति की भविष्यगत चिन्ताएँ उसके माथे पर सिकन पैदा कर रहीं थीं, और वह क्लास के पहले बेंच पर बैठकर जागृत अवस्था में स्वप्न सागर मे लीन था और संभवत: दु:खी भी। तभी माधुर्य से लबरेज लहजे में किसी ने कहा-"एक्सक्यूज मी! आप आपका नंबर दे दो।"

अंकुश भले ही अंग्रेजी जैसे भविष्यनिर्माता विषय में कमजोर था, लेकिन था, हिन्दी पट्टी से। उस माधुर्य से ओत-प्रोत लहजे में एक शब्द इंग्लिश का और एक ही वाक्य मे सर्वनाम की पुनरूक्ति और उससे भी कहीं ज्यादा आखिरी के दो शब्दों मे आदेश ही प्रतीत हुआ और आग्रह का तो अंश ही न दिखा। इन सब बातों से उसे पहले तो आश्चर्य हुआ लेकिन तुरंत ही वह आश्चर्य परिहास मे परिणित हो गया। उस परिहास को मन में मसोसकर न जाने अचानक अंकुश के ज़हन में क्या आया, एक कागज पर अपना मोबाइल नंबर लिखकर उसे दे दिया और पुन: टेबल पर सिर औंधियाकर चिन्तामग्न हो गया। कुछ देर बाद शोरगुल ज्यादा था। उसने निहारा तो क्लास खाली थी और उसी रूम में दूसरे क्लास के विद्यार्थी प्रवेश कर रहे थे। जब शोर और तीव्र हुआ तो अंकुश ने बैग उठाया और हॉस्टल की ओर लौट पड़ा।

सबकुछ नया था, एकदम नया। उधर काॅलेज में क्लासमेट, इधर हाॅस्टल मे हाॅस्टलर, और रूम में रूममेट।

जब सबकुछ नवीन होता है तब उसमें आनन्द का पुट थोड़ा दीर्घ होता है।

घर मे बात करना, रूम का बेड ठीक करना, अपने रूममेट को अपनी हैंडराइटिंग से रूबरू कराना और उनकी हैंडराइटिंग से वाकिफ होना, कुछ तारीफें करना वो भी इसलिए कि तारीफें मिल सकें और कुछ बायो की रटी-रटाई थ्योरी और concept पर शास्त्रार्थ करना, और उद्देश्य केवल एक, अपनी- अपनी विद्वता का प्रदर्शन करना।

रूम मे थोड़ी बहुत विषयगत चर्चाएँ चल ही रही थीं कि बायो स्ट्रीम के दो-चार सहपाठी आस-पड़ोस के रूम से भी आ गए और गहन scientific वार्तालाप प्रारंभ हुआ। इस scientific वार्तालाप में अंकुश ऐसे लीन हो गया मानो पाँव पर रेत रखकर नदी किनारे कोई बालक घरौंदे बना रहा हो और दुनिया से अनभिज्ञ हो। कब पाँच बज गए उसे होश ही न रहा। तभी उसके फोन ने मौन तोड़ा और रिंगटोन बजा 'मेरा रंग दे बसंती चोला'। नंबर नया था, लेकिन आश्चर्य कम, क्योंकि सबकुछ तो नया ही था। उसने फोन उठाया तो अत्यंत आत्मविश्वासयुक्त और प्रसन्नतापूर्ण लहज़े मे आवाज आई -

"हैलो! मै प्रज्ञा बोल रही हूँ।"

अंकुश न-नुकुर कैसे करता, क्योंकि पूरे काॅलेज में एक ही लड़की से तो भेंट हुई थी। फिर भी बात बनाने के लिए बड़े शालीन शब्दों मे उसने कहा- "जी माफ कीजिए! मैने ठीक से आपको पहचाना नही, कृपया विस्तृत जानकारी दीजिए।"

प्रज्ञा ने पहला ही वाक्य अंकुश के मुँह से सुना था वो भी इतना विस्तृत, इतना सुसंगठित और इतने विनम्र स्वर में, उसे विश्वास ही नही हो रहा था कि ये वही लड़का बोल रहा है जो सुबह काॅलेज मे बेंच पर सिर औंधाये बैठा था, उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो किसी काॅल सेन्टर में फोन मिला है और कोई कस्टुमर केयर के ऑफिस से बोल रहा है।

खैर! इन सब भावों को मन में ही समेटकर उसने सुबह हुई मुलाकात और वाकिये का ज़िक्र किया और उसकी बनावटी बातों से पर्दा हटाया।

दोनों के लिए परिस्थितियाँ नई थीं, पर प्रज्ञा स्वभाव से चंचल और मसखरी थी। उसे इस बात से कोई प्रभाव नही पड़ता था कि वह अपने वाक्य संरचना को गढ़कर बोले। इसमे दोष भी उसका नही था, वह तो शहरी परिवेश मे पली-बढ़ी हिन्दी इंग्लिश की mix veg( मिक्स वेज)खाती हुई, मौलिकता के मूल्य से ऊपर उठकर नैतिकता की पराकाष्ठा मे विहार करती हुई, अपनी मौखिकता का पोषण कर रही थी। पर एक बात उसके पक्ष मे थी, वो नैतिकता और उच्छृंखलता की सीमा पर प्रहरी बनकर खड़ी थी। अर्थात नैतिकता के अंतिम पायदान में तो थी लेकिन उच्छृंखल न हुई थी। उसने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा-

"सुबह तुम इतने उदास और परेशान से क्यों बैठे थे।"

अंकुश को एक क्षण के लिए आभास तो हुआ कि वास्तविकता से क्या परदा करुँ? जो हकीकत है उसे बयां करने में क्या हर्ज! पर वो कैसे कहता, अपने विद्यालय का टाॅपर जो था। तारीफों के शीशे रूपी ईंट से गढ़ा हुआ भवन जो था। उसने पढ़ा अवश्य था कि "आलोक एक उज्ज्वल सत्य है" पर उसका अनुसरण भला क्यूँ करता वह एक लड़का भी तो था। वह अपने ही मुख से कैसे कहता कि Zoology प्रोफेसर के द्वारा दिए गए लेक्चर की हेडिंग तक उसे समझ नही आई। वह कैसे कहता मै संज्ञाविहीन हो गया था, और वह कैसे कहता कि मैं गाँव से हूँ इसलिए इंग्लिश समझ में नहीं आती। उसने बात को बनाते हुए कहा-

"कुछ नहीं! बस थोड़ा बाहरी तनाव था"

और बात को आगे बढ़ाते हुए बोला- "प्रज्ञा तुम अपने बारे में बताओ।"

इतना सुनते ही प्रज्ञा का नीरस हृदय श्रृंगारिक आभूषण पहनकर रस से सराबोर हो गया, उसमे काव्यात्मक गुण प्रस्फुटित होने लगे क्योंकि उसे पहली बार किसी लड़के ने इतने प्यार से भरमुँह प्रज्ञा कहा था। लेकिन ये प्रज्ञा का भ्रम था क्योंकि अंकुश की आवाज में इतनी गहराई और मिठास पहले से ही थी। अभी तो बातों का सिलसिला शुरू हुआ था और वार्तालाप इतना कम था कि अभी तक प्रज्ञा अंकुश का नाम तक न पूछ पाई थी, लेकिन उसकी आवाज में कुछ ऐसा जादू अवश्य था कि प्रज्ञा कुछ-कुछ अंकुश की होने लगी थी। प्रज्ञा ने स्वयं को भावों की दरिया से निकालकर पूरे होश-हवाश में पूछा-

"ओए हैलो मिस्टर! पहले अपना नाम तो बताओ"

उत्तर मिला "अंकुश"।

अब प्रज्ञा ने वही ट्रिक अपनाया जो अंकुश ने अपनाया था, फर्क सिर्फ इतना था कि ये जानबूझकर था और वह स्वाभाविक था। उसने प्यार भरे लहजे मे कहा -

"अंकुश पहले तुम्ही अपने बारे मे बताओ।"

बातें बढ़ रही थीं, दोनो एक दूसरे के करीब होते जा रहे थे, ठीक प्रज्ञा जैसी स्थिति अंकुश की भी थी, उसे भी आज तक किसी लड़की ने भरमुँह अंकुश न कहा था। उस पहले दिन की मुलाकात में वे दोनों अलग-अलग थे, परन्तु उस पहले दिन की बातचीत में वे एक-दूसरे के थे, और अब एक दूसरे के नहीं बल्कि एक ही थे।

कहते हैं जिस निबंध की प्रस्तावना निबंधकार गढ़ता है, उसका उपसंहार भी उचित तर्कों और सटीक शब्दों के माध्यम से करता ही है, फोन पर पहले दिन जो प्रज्ञा और अंकुश इन दो प्रेमी निबन्धकारों ने प्रेमरूपी निबंध की प्रस्तावना गढ़ी थी, उसका अभी विषय- विस्तार चल रहा है। रोज रात घण्टों बातें होती हैं, भविष्यगत चर्चायें होती हैं, आज भी लाइब्रेरी मे उठना-बैठना साथ होता है, दोनों अपने कर्तव्य पथ पर प्रेमरूपी चादर को ओढ़कर ज्ञानरूपी मार्ग में चल रहे हैं। प्रज्ञा अपनी प्रज्ञा ( विवेक) का समुचित प्रयोग करती है और अंकुश अपनी इन्द्रियों में अंकुश लगाकर प्यार को प्यार ही रहने दो जैसी उक्तियों को चरितार्थ कर रहा है। पता नही इस प्रेमरूपी निबंध का उपसंहार कैसा होगा। भगवान जाने?

-विमलेश कुमार।

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Vimleshkumar

Journalist, poet & writer, दिल से Scientist.