कुछ खास नहीं था न मुझमें? वही भदेसपन, वही आवारागर्दी, वही खेलने का पागलपन, और साइंस की किताबों में डूबा भारी सा चेहरा। सबेरे से शाम तक क्रिकेट ग्राउंड में बीतते थे। शाम को ग्राउंड से आते वक्त मम्मी गुस्साए हुए अंदाज में कह भी देती थीं कि-आज तो खाना भी क्रिकेट ग्राउंड में ही खाते, घर काहे लौट आए? उस वक्त कोई जवाब ना होता था। बस इतना कि हाथ पैर धोकर खाना खाना है और फिर फिजिक्स की किताब उठा लेनी है। बहुत बोरिंग सी होती हैं साइंस की किताबें। और बोरियत तब और बढ़ जाती है जब आपका माध्यम हिंदी हो। लेकिन इसकी एक दिलचस्प बात यह है कि अगर आपको साइंस समझ आने लग गई तो समझो सारी दुनिया इसी में है।
ऐसा ही कुछ था अपना ग्रेजुएशन से पहले। मन को एक तराजू मान लें तो इस तराजू में एक तरफ क्रिकेट झूलता था और एक तरफ साइंस। दोनों ऊपर नीचे ही रहते थे, सामंजस्य तो दोनों में बैठा ही नहीं। परिणाम यह होता था कि कभी पूरा दिन पढ़ाई में निकल जाता, कभी ग्राउंड में। मन के पास दो प्रपोजल थे। एक साइंस का और एक क्रिकेट का। मन को इंप्रेस करने के लिए साइंस और क्रिकेट में ज़ोरदार लड़ाई थी। बहुत परीक्षण करने के बाद मन ने यह डिसीजन लिया कि साइंस सही रहेगा। मन ने साइंस के प्रपोजल को एक्सेप्ट कर लिया। फिर ज़ोरदार पढ़ाई हुई। निहायत अकेले में विज्ञान की किताबों के साथ।
गाँव की स्कूलों में लाइब्रेरी का कोई स्कोप नहीं होता है (कम-अज-कम आज से 4 साल पहले तो नहीं था, अभी का पता नहीं)। ये अलग बात है कि आपको पुस्तकालय के बारे में निबंध लिखाकर लाइब्रेरी से रूबरू करा दिया जाता है। तो लाइब्रेरी ना होने की वजह से मन और साइंस की मोहब्बत को इत्मीनान से बात करने के लिए जगह ना मिली। दो बरस तक जैसे तैसे दोनों ने अर्जेस्ट किया। यहाँ तक मन एकदम क्लियर था। उसने क्रिकेट से बेवफाई तो की थी, लेकिन साइंस की वफ़ा में कोई कसर न छोड़ना चाहता था।
इन्हीं सब घटनाक्रमों के बीच मन का पदार्पण शहर के साइंस कॉलेज में होता है। वहाँ अपनी मोहब्बत से बात करने के लिए, सिर्फ बात करने के लिए ही नहीं बल्कि इत्मीनान से बात करने के लिए लाइब्रेरी रहती है। यहाँ तक तो सब कुछ बल्ले-बल्ले है। लेकिन अचानक से मन को यहाँ पर साहित्य की किताबें दिखती हैं। मन देखता रह जाता है, दो चार पेज उलटकर पढ़ता है, और उसे धीरे धीरे -धीरे साहित्य की ये किताबें पसंद आने लगती हैं।
अब फिर से अंतर्द्वंद। इस बार का अंतर्द्वंद खेल और पढ़ाई के बीच नहीं, इस बार का अंतर्द्वंद है पढ़ाई और पढ़ाई के बीच का। मन सोच रहा है कि मैं विज्ञान पढूँ या साहित्य। फिर जैसे तैसे इस अंतर्द्वंद के बीच में अपने आप को संभाले रहता है, और अपनी दोनों महबूबाओं से बात करने के लिए रोज़ सुबह से शाम तक कॉलेज की लाइब्रेरी में बैठने लगता है। लगभग तीन साल तक यह सिलसिला चला। इन तीन सालों में साइंस और साहित्य तो प्राइमरी बने ही रहे, लेकिन उनसे भी प्राइमरी बन गई इन दोनों को पढ़ने के लिए बैठने वाली जगह यानी लाइब्रेरी।
इस लाइब्रेरी में सब कुछ मिलता है। इस लाइब्रेरी ने मुझे कुछ अनमोल रत्न दिए। एक तो यही की पहली मोहब्बत जो कि किताबें हैं, उनके अलावा एक और मोहब्बत। जब किताबों से मन ऊब जाए, या थोड़ी थकान महसूस होने लगे, तो साथ में कैंटीन में बैठकर चाय पीने के लिए.... एक.... महबूबा। वास्तविक दुनिया और वास्तविक ज़िदगी पर चर्चा करने के लिए। और किताबों का हाल जानने के लिए भी।
जब एक बड़े कॉलेज से एक प्रतिष्ठित संस्थान में अपनी शिफ्टिंग हुई तब उस जगह की लाइब्रेरी भी साथ छूट गई।
ऐसे ही मन को खुश करने के लिए एक दिन प्रतिष्ठित संस्थान की लाइब्रेरी में चला गया। किताबे देखीं तो वही पुराने दिन याद आने लगे। लगा कि यहीं बैठ कर पढ़ाई की जाए, और फिर से पुराने सिलसिले को शुरू किया जाए। लेकिन अब यह उस हद तक संभव नहीं है जितना पहले था। एक तो हम प्रोफेशनल कोर्स में हैं, दूसरा कोर्स समाप्त होने को है, तीसरा साइंस से बेवफाई कर ली है, चौथा साहित्य पढ़ने के लिए समय नहीं है, पांचवा खबर लिखनी है और असाइनमेंट करने हैं, और सबसे आखरी एवं सबसे महत्वपूर्ण कि अब किताबों से ऊबकर मन हल्का करने के लिए कैंटीन तक जाने वाला, और वास्तविक दुनिया और वास्तविक ज़िदगी पर चर्चा करने वाला भी तो पीछे छूट गया है। फोन में आदमी आखिर कब तक बात करे।
खैर! मैं जो भी था, जैसा भी था, अकेले था, दुकेले था, लेकिन लाइब्रेरी के साथ था तो मस्त था। अब भी जाता हूँ तो मस्त रहता हूँ। वैसे कहना गलत नहीं होगा, हो सकता है मैं उस काबिल भी न होऊँ, लेकिन- एक गवार से विद्वान तक का सफर अगर कोई तय कराता है, तो वो लाइब्रेरी और लाइब्रेरी में रखी किताबें हैं।
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