यूँ तो सोचने का आजकल बहुत कम समय मिलता है फिर भी मन चंचल और चिंतनशील है इसलिए कुछ न कुछ सोच ही लेता है। दरअसल! आज एक ऐसा वाकया हुआ कि मन सोच में पड़ गया। ज़हन में खयाल आने लगे कि आदमी एक छोर से दूसरे छोर तक का सफ़र तय तो करता है लेकिन है सब अनिश्चित। और कभी-कभी तो ऐसा होता है कि एक सीमित समय में ही आप बहुत कुछ कर डालते हैं, भले ही आधा- अधूरा ही क्यों न करें।
अगर मैं अपने ग्रेजुएशन के तीन सालों का ही उदाहरण लूँ तो बहुत कुछ स्पष्ट हो जाएगा-
मैं गॉंव से एक बड़े शहर इसलिए गया क्योंकि मुझे MBBS करना था। मैंने NEET की तैयारी ठीक- ठाक करी भी, लेकिन बिना कोटा गए। परिणाम उम्मीद के मुताबिक नही आये और असफलता हाँथ लगी। हौसला पस्त हो गया लेकिन एक उम्मीद तो थी ही कि चलो ग्रेजुएशन तो चल ही रहा है कम से कम ज़ीरो ईयर तो नही जाएगा।
फिर ग्रेजुएशन के साथ - साथ तैयारी शुरू हो गई JAM की। चूकि कोरोना महामारी का उद्भव हो चुका था इसलिए समस्याएं हर किसी के सामने थीं। स्वाभाविक है मेरे सामने भी थीं। फिर भी जैसे - तैसे एक पाँव से ही सही पर पढ़ाई चलती रही। JAM का एक्जाम दिया, परिणाम आये लेकिन NIT तक ही सीमित रहे IIT तक न पहुंच पाए। मतलब यहाँ भी निराशा। लेकिन इस निराशा से ज्यादा गिलटी फील नही हुई क्योकि JAM के एक्ज़ाम को मैंने सीक्रेट रखा था इसलिए लोक लाज से बच गया।
JAM ना निकलने का एक बड़ा कारण यह भी रहा कि कुछ समय के लिए मन MPPSC में रम गया था। अब इंदौर का तो पूरा माहौल ही MPPSC वाला है। प्रभाव पड़ गया। इतनी सारी कोचिंग्स हैं कि दो- दो दिन भी चक्कर लगाओ तो साल बीत जाए। खैर कोचिंग जाते- जाते और कुछ तो नहीं हुआ पर गाहे- बगाहे एक साल का कम्प्यूटर एप्लिकेशन डिप्लोमा ( DCA) हो गया। ये सब तो हुआ, ठीक बात है, लेकिन MPPSC और DCA के चक्कर में JAM में गचका खा गए।
अब धीरे- धीरे ऑप्शन ख़तम हो रहे थे। हिंदी लिटरेचर स्वान्तः सुखाय के लिए पढ़ता था, इसलिए ग्रेजुएशन के तीन सालों में इसकी ठीक-ठाक पढ़ाई हो गई थी। मतलब इन तीन सालों की पैरेलल पढ़ाई में लेवल प्रेमचंद से उठकर अज्ञेय और मुक्तिबोध तक पहुँच गया था। मैंने ठान ली कि गुरु! अब NEET और JAM तो हमसे निकल ना पाये! पर अब हम निकालेंगे JNU, और वहाँ से करेंगे हिंदी लिटरेचर में M.A.
ठानना एक बात होती है और उस पर खरा उतरना दूसरी बात। अब निर्धारित तो कर लिया कि JNU निकालना है, लेकिन संशय तो फिर भी था कि निकलेगा या नहीं? आखिर इतना बड़ा एक्ज़ाम है। इसलिये मैंने DU, Jamia, wardha, तीन और यूनिवर्सिटीज के लिए फॉर्म फिल कर दिये। फिर किसी सीनियर ने बताया कि- "ये सब डाल ही रहे हो तो IIMC एक संस्थान है जो पत्रकारिता की पढ़ाई कराता है उसका भी फॉर्म डाल दो। क्या पता हो जाये!" मैंने कहा- हौ सर डाल देता हूँ। और एक दिन इसका भी फॉर्म भर दिया।
फिर मैंने ये सारी परीक्षायें दीं और सारी परीक्षायें मस्त गयीं। सबसे पहले IIMC का रिजल्ट आया और सलेक्शन हो गया। भविष्य में सुरक्षित रहने के लिए मैने एडमिशन भी ले लिया। अब यहाँ से निर्धारित यह हुआ कि jamia, du, और बर्धा में अब हो भी जाता है तो भी नही जाना है। हाँ! अगर jnu में हो गया तो IIMC छोड़ दूंगा।
अब बेसब्री से इंतजार था jnu के रिजल्ट का। एक लंबे इंतजार के बाद रिजल्ट निकला लेकिन फिर से निराशा, फिर से असफलता। पिछली दो असफलतायें इतनी नहीं खली थीं लेकिन इस बार की असफलता खल गयी। कहने को तो ऑल इंडिया 45th रैंक थी लेकिन सीटें तो सिर्फ 39 ही थीं। बहुत दुख हुआ, बहुत निराशा हुई लेकिन फिर भी सब्र की नौका एक वृहद जलाशय में तैरती रही। iimc में ही मन मसोसकर नौ महीने बिताने पड़े।
iimc में जब लोगों से सवाल पूछा जाता कि तुम पत्रकारिता में क्यों आये हो तो उनके मुखारविंदों से बड़े क्रांतिकारी विचार निकलते। देश को बदलना है, समाज में जागरूकता लानी है इस टाइप के। लेकिन यही प्रश्न जब मुझसे पूछा जाता तो मैं निरुत्तर हो जाता। निरुत्तर इसलिए नहीं कि मेरे पास शब्द नही थे या जवाब नही थे, निरूत्तर इसलिए कि मेरा उत्तर बहुत बड़ा था और उतना बड़ा उत्तर सुनने के लिए न उनके पास इतना धैर्य था और न समय।
तब मुझे लगा था कि मैंने गलत डिसीज़न ले लिया है। लेकिन मैं इसके साथ भी खुश था क्योंकि अपने पास इतना तो है कि किसी भी फील्ड में कुछ भी कर लेंगे। यहां सब अप्रत्याशित है लेकिन बहुत कुछ किया जा सकता है।
मैं सामान्यतः ऐसी बातें लिखता नही हूँ लेकिन ये बातें आज ज़हन में इसलिए आ गईं क्योकि आज नई दिल्ली के अरुणा आसफ अली मार्ग पर चलते हुए मेरे एक अच्छे दोस्त ने कहा- "विम्मु! मुझे लगता है मैं गलत प्रोफेशन में आ गया, मैं किसी और चीज़ के लिए बना हूँ यार।"
मैने उसके सेन्टेस को बड़े ध्यान से सुना था लेकिन यह सब रास्ते में बताना और समझाना संभव न था। इसलिए मैंने यहां पर अपनी कहानी के माध्यम से बताने की कोशिश की है।
मेरे दोस्त जीवन में कुछ भी स्क्रिप्टेड नहीं है। मेहनत हम करते हैं लेकिन चीजें नियति निर्धारित करती है। जितने पैराडाइम शिफ्ट मेरे साथ हुए हैं संभव है उतने ही तुम्हारे साथ भी हुए होंगे, कम या ज्यादा भी हो सकते हैं। फिर भी मैंने खुद को संभाले रखा है, तुम भी स्वयं को संभालो। ज्यादा तनाव मत लो, खुल के जियो, और द कश्मीर फ़ाइल के डायरेक्टर विवेक रंजन अग्निहोत्री के शब्दों में कहें तो "just go with the flow" प्रवाह के साथ चलो।
तुम टीवी स्क्रिप्ट लिखो, तुम्हारे जीवन की स्क्रिप्ट नियति लिखेगी।
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